जैन धर्म के संस्थापक ऋषभ देव थे। वास्तविक संस्थापक महावीर स्वामी थे।जैन धर्म के मूल संस्थापक ऋषभ देव या आदिनाथ को माना जाता है।
जैन धर्म भारत की सरवण परंपरा से निकला धर्म और दर्शन है।जैन उन्हें कहते हैं जो जिन के अनुयायी हो। jain dharm ke sansthapak kaun the
जीन शब्द जी धातु से बना है। जी यानी जीतना जिन यानी जीतने वाला।जिन्होंने अपने मन को जीत लिया अपनी वाणी को जीत लिया अपनी काया को जीत लिया।
वे जिन हैं।वस्त्र हिन बदन और शुद्ध शाकाहारी भोजन और निर्मल वाणी जिन अनुयायियों की पह ली पहचान है। जैन धर्म के अनुयायियों की मान्यता है कि उनका धर्म अनादि और सनातन है।

सामान्यतः लोगों में यह मान्यता है कि जैन संप्रदाय का मूल उन प्राचीन परंपराओं से रहा होगा जो आर्यों के आगमन से पूर्व इस देश में प्रचलित थी। किंतु आर्यों के आगमन के बाद भी देखा जाए तो ऋषभदेव और अरिष्ठनेमी को लेकर जैन धर्म की परंपरा वेदों तक पहुंची है।महाभारत के युद्ध के समय में इस संप्रदाय के मुख्य नेमिनाथ थे। जैन धर्म में माननीय तीर्थंकर हैं।
ईसवी पूर्व आठवीं सदी में जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए।जिनका जन्म काशी वर्तमान में बनारस के राजा अशोक सेन के घर हुआ था। काशी के पास ही जैन धर्म के 11 तीर्थंकर श्रेयास नाथ का जन्म हुआ था। इन्हीं के नाम पर सारनाथ का नाम प्रचलित है। जैन धर्म को पंथ या संप्रदाय के रूप में ऋषभदेव द्वारा कई ईसवी पूर्व स्थापित कर दिया गया था। लेकिन इस संप्रदाय को धर्म के रूप में स्थापित करने का श्रेय केवल 24 वे तीर्थंकर महावीर स्वामी को है।
स्वामी से पूर्व ऋषभ देव द्वारा चलाया गया धर्म जैन धर्म ने कलाहकर नी ग्रंथ कहलाया। महावीर स्वामी का जन्म 599 ईसवी पूर्व कुंडल ग्राम वंशी संघ वैशाली गणराज्य में हुआ। वीर स्वामी ज्ञातृक वंश के थे इनका बचपन का नाम वर्धमान था।
के पिता का नाम सिद्धार्थ तथा माता का नाम त्रिशुला था। महावीर स्वामी की पत्नी का नाम यशोदा तथा पुत्री का नाम प्रियदर्शनी था। जाबींक गांव में ऋजुपालिका नदी के किनारे साल वृक्ष के नीचे इन्होंने ज्ञान प्राप्त किया। मौर्य सम्राट के अभिलेखों से यह पता चलता है कि उसके समय में मगध में जैन धर्म का प्रचार था।
लगभग ही समय में जैन मठों में रहने वाले मुनियों में यह मतभेद हुआ कि तीर्थंकरों की मूर्तियां कपड़े पहना कर रखी जाए या नग्र अवस्था में। इस बात पर भी मतभेद था कि जैन अनुयायियों को कपड़े पहने चाहिए या नहीं। आगे चलकर यह मतभेद भी बढ़ गया। ईशा की पहली सदी में आकर जैन मत्ता व लंबी मुनी दो दलों में बंट गई।
एक दल श्वेतांबर तथा दूसरा दल दिगंबर कहलाए।
दिगंबर__भद्रबाहु द्वारा श्रवणबेलगोला कर्नाटक में चलाया गया पंत जिसे समैया भी कहा जाता है। यह महावीर स्वामी को महापुरुष मानते हैं। और निर्वस्त्र रहकर कठोर जीवन व्यतीत करते हैं। इस संप्रदाय के लोग यति ,साधु ,आचार्य कहलाते हैं।
श्वेतांबर_स्थूलभद्र द्वारा चलाया गया मगध में पंत जिसे तेरह पंत भी कहा जाता है। तथा यह महावीर स्वामी को ईश्वर के समान मानते हैं। श्वेत वस्त्र धारण करके मध्य मार्ग द्वारा जीवन व्यतीत करते हैं। इस संप्रदाय के लोग एलक, खुलक ,नीग्रंथ कहलाते हैं।
श्वेतांबर संप्रदाय के लोग महावीर स्वामी की मूर्ति पूजा करते हैं।
जैन धर्म का दार्शनिक विश्वास अनीशववादी तथा पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं।
मौर्य शासक चंद्रगुप्त मौर्य ने जैन धर्म के प्रवाह में आकर ही श्रवणबेलगोला कर्नाटक तथा राष्ट्रकूट नरेश अमोघ वर्ष ने दक्षिण में सल्लेखना/संथारा प्रथा द्वारा मृत्यु वरण किया था।
अमोघ वर्ष ने संयास ले कर रतन मलिका नामक पुस्तक भी लिखी थी।
अशोक के पुत्र संप्रति यदि जैन आचार्य सवास्तीन के संपर्क में आकर मृत्यु वरण किया था तो चंद्रगुप्त मौर्य ने भद्रबाहु के संपर्क में आकर मृत्यु का वरण किया था।महावीर स्वामी के पश्चात जैन धर्म का अध्यक्ष सुधरमण तथा अंतिम केवलिन जंबू स्वामी था।
गणधरमहावीर स्वामी के 11 शिष्य थे जिन्हें गंधर्व या गणधर भी कहते हैं। सल्लेखनाइसका शाब्दिक अर्थ बुराई अच्छाई का लेखा-जोखा है।लेकीन जेन धर्म के अनुसार अपनी इच्छा से अपनी मृत्यु का वरण करना है।
जैन संघ का विभाजन श्रावक श्राविका भिक्षुणिया है।
श्रावक श्राविका गृह आश्रम में रहकर भी जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण कर सकते थे जबकि भिक्षु ओर भिक्षुणी को सन्यास लेना पड़ता था।
आगम_जैन साहित्य को कहते हैं। इसका
शाब्दिक अर्थ पवित्र होता है।
कल्प सूत्रजैन धर्म का सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ जिसकी रचना दिगंबर आचार्य भद्रबाहु ने की थी।क्लब सूत्रों में तीर्थंकरों की जीवन वर्णित है। परिवीषट प्रबंधजनों का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ जिसकी रचना आचार्य हेमचंद्र सूरी ने की है।
कल्प सूत्र में चंद्रगुप्त मौर्य वह भद्रबाहु की मुलाकात का वर्णन है जबकि प्रविष्ट प्रबंध मैं 63 शलाका पुरुषों का वर्णन है।जिसमें भगवान श्री कृष्ण को शामिल किया गया है । जिस त्रिषठ्ति श्लाखा पुरुष चरीत्र भी कहा जाता है।
नयाधमकहां मैं महावीर स्वामी की शिक्षाओं का वर्णन है।
जैन धर्म के त्रिरत्न सम्यक ज्ञान सम्यक दर्शन सम्यक चरित्र है। जैन धर्म का दर्शन स्यादवाद अनेकांतवाद सापेक्ष वाद है जैन धर्म के ज्ञान के स्त्रोत प्रत्यक्ष अनुमान शब्द है। प्रारंभ में जैन धर्म में चार ही महाव्रत थे बाद में महावीर स्वामी ने पांचवां महा वृत्त ब्रह्मचर्य जुड़ा था। जैन धर्म के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति छह द्रव्य, जीव पुद्गल धर्म धर्म आकाश काल से हुई है।
72 वर्ष की आयु में महावीर स्वामी की मृत्यु 527 ईसवी पूर्व बिहार के निकट पावापुरी मैं हुई थी।
केवल या मोक्ष__जीव की अंतिम लक्ष्य आत्मा को भौतिक तत्वों से अलग करना है। यही जैन धर्म के अनुसार मोक्ष है। जैन धर्म आत्मा में विश्वास करता है
लेकिन जिस तरह जीव अलग-अलग प्रकार के हैं उसी तरह आत्माएं भी अलग-अलग प्रकार की है मैं विश्वास करता है। जैन धर्म के अनुसार ज्ञान मति ,श्रुति, अवधि प्रकार का है। इन तीनों को तीर्थंकरों के वचनों से प्राप्त किया जाता है। जैन धर्म का मुख्य केंद्र मथुरा तथा उज्जैन था।
धर्म प्रचार के लिए स्त्रियों व पुरुषों को प्रवेश दिया गया था। ऋग्वेद में जैन तीर्थ कर ऋषभदेव अष्पनेमी का उल्लेख है। तो यूज़र्वेद में तीर्थ कार अजीत नाथ का वर्णन है तथा आश्वा लाइन सूत्र में कृष्ण को अष्ट नेमी के समकालिक बताया गया है।
श्रवणबेलगोला में 70 फुट ऊंची बाहुबली की मूर्ति जैन स्थापत्य का सर्वोत्तम उदाहरण है। जबकि माउंट आबू स्थित दिलवाड़ा का मंदिर जैन मंदिर का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। बाहुबली पहले तीर्थ कर ऋषभदेव के पुत्र थे।जैन धर्म जियो और जीने दो की राह दिखलाता है।
वर्तमान समय में भी जैन धर्म के कुछ अनुयाई इसके प्रचार प्रसार के लिए के विभिन्न भागों में घूम रहे है। जैन धर्म सभी धर्मों में अपनी प्रमुख भूमिका प्रस्तुत करता है।