भक्त हरी नारायण की कथा
कुछ दिनों बाद अनन्तरावके एक पुत्र उत्पन्न हुआ। अब दत्तक पुत्र हरिनारायणपर उनका स्नेह नहीं रह गया। वे इनसे अकारण ही चिढ़ने लगे। उनके मनका विरोध बढ़ने लगा।
अन्तमें एक दिन अपने घरसे हाथ पकड़कर उन्होंने इनको निकाल दिया।
बालक हरिनारायण बचपनसे बड़े सरल स्वभावके थे। सांसारिक कामोंमें इनकी रुचि नहीं थी। ये सदा अपनी आन्तरिक वृत्तियोंको सुधारनेमें ही लगे रहते थे।
hari katha bhajan
इसका फल यह हुआ कि घरके लोग इन्हें निकम्मा समझने लगे। अनन्तरावद्वारा निकाल दिये जानेपर ये अपने पिताके घर आये।
पिताने भी इनका तिरस्कार किया और वनमें चले जानेको कहा; किंतु स्नेहमयी माताने इन्हें समझाया-‘बेटा! तुम पिताकी बातका बुरा मत मानो। इस अनित्य संसारमें सभी लोग दु:खपूर्ण विषयोंमें फँसे हैं।
पाप-पुण्यका उन्हें विचार नहीं है। सच्चा सुख तो शान्तिमें है और शान्ति इस संसारके विषयोंसे उपराम हो जानेपर मिलती है।
मेरे पास रहकर तुम विषयोंसे मनको धीरे-धीरे हटा लो। इससे तुम्हें शान्ति प्राप्त होगी।’ माताका उपदेश सुनकर उस स्नेहमयीके आग्रहसे ये घरपर ही रहने लगे।
कुछ समय बाद इनके माता-पिता तीर्थयात्रा करने काशी गये। घरका सारा भार इन्हींके ऊपर पड़ा। हरिनारायण बड़े ही दयालु और उदार स्वभावके थे।
माता-पिताके न रहनेपर वे घरकी सम्पत्ति साधु-ब्राह्मणोंकी सेवामें, भजन-पूजन तथा हरिकीर्तन आदिके समारोहोंमें तथा दीन-दुःखियोंको दान देने में खर्च करने लगे। धीरे-धीरे घरकी सारी सम्पत्तिका सदुपयोग हो गया।
तीर्थयात्रासे लौटकर पिताने देखा कि उनके पुत्रने तो घरका सब धन लुटा दिया है। वे बहुत ही क्रुद्ध हुए और बोले-‘तू अभी इसी क्षण यहाँसे निकल जा।
मुँह काला कर। अब एक क्षण भी यहाँ मत रह ।’ भगवान्के भक्त ऐसी आपत्तियोंसे न तो घबराते हैं और न चिन्तित होते हैं। हरिनारायणजीके लिये जैसा घर, वैसा वन। वे वनमें जानेको उद्यत हो गये।
हरिनारायणजी माता-पिताको प्रणाम करके वनमें जानेको निकले तो उनके पीछे उनकी पतिव्रता पत्नी अन्नपूर्णा भी घरसे निकलीं। स्त्रीको साथ आते देख उन्होंने बहुत समझाया कि ‘तुम धनी पिताकी पुत्री हो।
पिताके घर तुम्हें कोई कष्ट नहीं होगा। वनमें बहुत क्लेश भोगने होंगे। तुम साथ चलनेका हठ मत करो।’
पतिकी यह बात सुनकर रोते-रोते उस पतिव्रताने कहा-‘स्वामी! आप मेरा परित्याग न करें। आप अपने हाथसे मुझे चाहे मार डालें, पर अपने चरणोंसे दासीको पर्थक न करें।
bhagwat katha in hindi
आपका वियोग मुझसे नहीं सहा जायगा। द:ख तो प्रारब्धके भोग हैं। मैं आपकी अर्धाङ्गिनी आपके सुख में मुझे सुख है और आपके दुःखमें मेरा भी हिस्सा है।
स्त्रीके लिये पतिको छोड़कर और कोई गति नहीं। आप मुझे अनाथिनी बनाकर न छोड़ें। वह पतिके चरण पकड़कर फूट-फूटकर रोने लगी। हरिनारायण अब उसे साथ चलनेसे मना नहीं कर सके।
गाँवके लोगोंकी हरिनारायणपर बड़ी श्रद्धा थी। लोग उन्हें नारदजीका अवतार ही मानते थे। जब लोगोंने उनके वनमें जानेकी बात सुनी, तब गाँवमें हाहाकार मच गया। वे दम्पति गाँवके बाहर एक वृक्षके नीचे बैठे थे।
वहाँ लोगोंकी भीड़ लग गयी। किसी प्रकार हरिनारायणजीने समझा-बुझाकर सबको वहाँसे विदा किया। उनकी पत्नीने अपने शरीरपरके सब आभूषण उतारकर गरीबोंको बाँट दिये।
तीन दिनोंतक वहाँ हरिकीर्तन होता रहा। चौथे दिन सबको विदा करके वे दम्पति तीर्थयात्रा करने चल पड़े।
काशी, प्रयाग, गया आदि तीर्थोंकी यात्रा करके हरिनारायणजी उस ‘जोगाइचे आवे’ नामक ग्राममें लौट आये। अन्नपूर्णाको तो उन्होंने गाँवमें ठहराया और स्वयं वनमें कुटिया बनाकर तपस्या करने लगे। बारह वर्षतक
कठोर तप करनेके बाद भगवतीने प्रत्यक्ष दर्शन देकर इन्हें आदेश दिया–’तुम नरसिंहपुर जाओ। वहाँ तुम्हें सद्गुरुकी प्राप्ति होगी तथा उन गुरुदेवकी कृपासे तुम्हें भगवान्का साक्षात्कार भी प्राप्त होगा।’
देवीकी आज्ञाके अनुसार हरिनारायणजी अन्नपूर्णाको लेकर नरसिंहपुर चले आये। वहाँ वे एक दिन ब्राह्ममुहूर्तमें उठकर नदीपर स्नान करने गये थे। स्नान करके जलमें ही भगवान्का ध्यान कर रहे थे।
उसी समय नदीमें बाढ़ आ गया। लोगोंमें व्याकुलता फैल गयी। पतिव्रता स्त्री अपने पातको रक्षाके लिये नसिंहभगवान्से प्रार्थना करने लगी।
इधर जलमें खड़े हरिनारायणजी भगवान्के ध्यान में सन तल्लीन हो गये थे कि उन्हें पता ही नहीं लगा कि उनके सिरके ऊपरसे बढ़ी हुई नदीको धारा उम
रहा है। उसी समय वहाँ जलमें ही देवर्षि नारदजी
hari katha bhagwan ki
पधारे। भगवान्के नामका मधुर कीर्तन करके देवर्षिने हरिनारायणजीको सावधान किया और उन्हें परम तत्त्वका उपदेश देकर वे चले गये।
सात दिनोंतक नदीमें बाढ़का जोर रहा। आठवें दिन जब जल उतर गया तब गाँवके लोग हरिनारायणजीका शरीर ढूँढ़ निकालनेके लिये वहाँ आये। हरिनारायणजी तो भगवान्के उस मन्दिरमें जो सात दिनतक जलमें
डूबा रहा, भगवान्के सामने हाथमें वीणा और करताल लिये भगवन्नामका कीर्तन कर रहे थे। उनके नेत्रोंसे आँसूकी धारा चल रही थी। लोगोंको बड़ा आश्चर्य हुआ।
सबने उन्हें प्रणाम किया और आग्रह करके उन्हें नृसिंहजीके मन्दिरमें ले गये। सती अन्नपूर्णा बिना अन्न-जलके सात दिन-रात पतिकी मङ्गलकामना करती, भगवान्से प्रार्थना करती बैठी थीं। पतिको सकुशल सुनकर उन्हें बड़ा ही आनन्द हुआ। वे मन्दिरमें जाकर पतिदेवके चरणोंपर गिर पड़ीं। __पण्ढरपुर जाकर जब उन्होंने भगवान् पाण्डुरङ्गके दर्शन करके उनके चरणोंमें साष्टाङ्ग प्रणाम किया तब उसी समय जगत्पति पाण्डुरङ्गने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें हृदयसे लगा लिया। भगवान्ने कहा-‘तुम्हारी वारी* मुझे पूर्णरूपसे मिल चुकी। अब मैं हरिशयनी तथा प्रबोधिनी एकादशीको स्वयं तुम्हारे पास आ जाया करूँगा।’
ram katha hindi
उसी समयसे हरिनारायणजी घरपर ही आषाढ़ी तथा कार्तिकी एकादशीका महोत्सव करने लगे। _हरिनारायणजीने शेषाद्रि, सेतुबन्ध रामेश्वर आदि दक्षिणके तीर्थोंकी भी यात्रा की।
अपने परम धाम पधारनेको सूचना उन्होंने पहले ही दे दी । सती अन्नपूर्णाने पतिके भावी वियोगसे व्याकुल होकर पतिको आज्ञा लेकर पहले ही नश्वर शरीर छोड़ दिया। भक्त हरिनारायण ‘बैनवैडी’ ग्राममें आये।
hari katha वहाँ उनकी गङ्गा-स्नान करनेकी इच्छा हुई तो भगवती भागीरथीने स्वयं प्रकट होकर भक्तकी इच्छा पूर्ण की। स्नान-तर्पण-देवार्चनादि करके, गीतामें वर्णित योगासनसे बैठकर प्राणोंको भ्रूमध्यमें संयमित करके शाके सं० १६४७ 7 में हरिनारायणजी समाधिमें स्थित हो गये। उनके शरीरसे 7 दिव्य तेज निकलने लगा और फिर वे ब्रह्मलीन हो गये।