हिंदू धर्म में सबसे पवित्र माने जाने वाला ग्रंथ गीता के रचयिता भगवान श्रीकृष्ण थे। भगवान श्री कृष्ण ने गीता के अंदर अर्जुन को समझाते हुए ज्ञान दिया है। (bhagwat geeta ke 18 adhyay)
महाभारत के युद्ध के समय भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को सही मार्ग दिख लाने के लिए पवित्र ग्रंथ पुराण भगवत गीता की रचना की।
अध्याय पहला””
भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से बोले की आत्मा को ना ही अग्नि जला सकती हैं ना ही पानी गला सकता है
और ना ही कोई शस्त्र इसे मिटा सकता है।तुम्हें यही सोच कर ना किसी मरने का शोक मनाना चाहिए ना किसी के न मरने की खुशी बनानी चाहिए।

श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध करने के लिए तथा इस मोह माया से बाहर आने के लिए प्रेरित किया था।
दूसरा अध्याय””
दूसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को अपने मन को वश में करने तथा इस सांसारिक मोहमाया से नाता तोड़ने के लिए प्रेरित किया
तथा अर्जुन को उचित मार्ग दिखलाया।भगवान श्री कृष्ण बोले जब तक तुम्हारा मन इन सांसारिक मोहमाया में बना रहेगा तब तक तुम्हें ईश्वर के दर्शन नहीं होंगे ईश्वर के दर्शन करने के लिए तुम्हें अपनी इच्छाओं पर विजय पानी होगी तब तुम अपने मन की आत्मा से परमात्मा को पहचानोगे।
तीसरा अध्याय””””
कहते है कि जब महाभारत का युद्ध पांडवों और कौरवों के मध्य था तब अर्जुन के सामने उसके शत्रु के रूप में उसके गुरु खड़े थे
तब भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए बोले कि शरीर मरता है आत्मा जीवित रहती है हो सकता है कि आज जो तुम्हारे गुरु हैं
उन्होंने पिछले जन्म में तुम्हारी हत्या की हो इसलिए तुम उनकी मृत्यु का शोक छोड़ दो यह सभी सांसारिक बंधन है
जो व्यक्ति को सफलता प्राप्त करने के लिए कठिनाइयां बनते हैं इसलिए सबसे पहले तुम्हें इन सभी सांसारिक बंधनों से नाता तोड़कर अपने लक्ष्य की ओर ध्यान देना चाहिए।
चौथा अध्याय”””
इसमें भगवान श्री कृष्ण व्यक्ति को अपनी भावनाओं की वजह से अपने कर्तव्य से मुंह फेर लेना गलत कहा है।
भगवान श्री कृष्ण बोले की भावनाओं से कर्तव्य ऊंचा होता है और व्यक्ति भावनाओं के वश में होकर अपने कर्तव्य से नाता तोड़ लेता है।अपनी भावनाओं से मोहन नहीं करना चाहिए
क्योंकि मृत्यु के बाद कोई भी पदार्थ कोई भी इच्छा अगले जन्म साथ नहीं जाती है साथ जाती हैं तो सिर्फ आत्मा इसलिए तुम सिर्फ आत्मा से मोहर को और वही तुम्हें उचित मार्ग दिखलायगी।
पांचवा अध्याय”””
इसमें भगवान श्री कृष्ण अपने कर्तव्य को अपना धर्म मान कर निभाने के लिए प्रेरित करते हैं। कहते हैं कि जो व्यक्ति आत्मा को मारने वाला तथा आत्मा को मारने वाला समझता है
तो वह दोनों ही अज्ञानी है क्योंकि आत्मा नहीं तो किसी को मारती हैं और ना ही किसी से मरती है। जब व्यक्ति अपने कर्तव्य को धर्म मान कर निभाएगा तो वह दुख सुख लाभ हानि जय विजय आदि
की चिंता के बिना अपने धर्म को निभाता रहेगा। अर्थात भगवान श्री कृष्ण कर्तव्य को अपने कर्म को धर्म के रूप में समझकर निभाने के लिए कहते हैं।
छठा अध्याय “”””
इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने अपने मन को वश में कर कर सभी इंद्रियों पर विजय पाकर भगवान का दर्शन करते हुए उनकी पूजा करते हुए अपने लक्ष्य की ओर ध्यान देना चाहिए।
कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने मन में अपने धर्म को देवता के रूप में संभाल लेता है
तब भगवान भी उसे अपने अंदर संभाल लेते हैं। जो व्यक्ति मिट्टी हीरे जवाहरात रतन मोती आदि को एक समान ही मानता है
वह लाभ हानि दुख सुख कठिनाइयां में एक समान व्यवहार करता है केवल वही व्यक्ति परमात्मा को अपने अंदर अपने मन की आंखों से देख सकता है।
सातवां अध्याय”””
इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि जब व्यक्ति को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है या जब उसका बुरा वक्त आता है
तब उसकी बुद्धि ही उसका शत्रु बन जाता है अर्थात उसकी बुद्धि उसको गलत मार्ग दिखलाती है।
इस स्थिति में व्यक्ति को योग करते हुए भगवान पर आस्था रखते हुए अपने कर्म को बड़ी ही निष्ठा से करना चाहिए उसे फल प्राप्ति की चिंता नहीं करनी चाहिए
और अपने धर्म के अनुसार अपने कर्म को करते हुए परमात्मा पर विश्वास रखना चाहिए।
आठवां अध्याय”””
कहते हैं कि हर व्यक्ति सुख की कामना करता है हर कोई अपना जीवन आनंद से व्यतीत करना चाहता है
हर किसी की बस एक ही कमरा होती है कि वह अपना जीवन सुख से व्यतीत करें लेकिन व्यक्ति की प्रवृत्ति से सुख की परिभाषा बदल जाती है।
कोई व्यक्ति साधु की सेवा कर उसका आशीर्वाद प्राप्त कर सुखी रहता है तो कोई नीच व्यक्ति किसी को दुख देकर सुखी रहता है।
दूसरों को खुश देख कर वह व्यक्ति दुखी होता है इस प्रकार व्यक्ति की प्रवृत्ति से उस व्यक्ति के सुख की परिभाषा बदल जाती हैं।
नवा अध्याय””””
कहते हैं कि जो व्यक्ति बाहर से भक्ति का ढोंग करता है अपने मन में परमात्मा को ना देख कर सिर्फ सफलता की राहे कोई देखता रहता है
धन की इच्छा करता रहता है और बाहर से भक्ति का ढोंग करता रहता है वह व्यक्ति योगी नहीं ढोंगी होता है।
तो उस मनुष्य का कभी कल्याण नहीं होता है। जो व्यक्ति भक्ति करते समय है अपने मन में सिर्फ परमात्मा को ही देखता है
जो अपनी इंद्रियों पर विजय पा लेता है जो लोभ की आशा नहीं करता है केवल उसी व्यक्ति का परमात्मा के द्वारा कल्याण हो सकता है।